संपादकीय: धान का कटोरा और सियासी तकरार


राज्य में विपक्ष की मुख्य मांग है कि धान की खऱीदी 1 नवंबर से शुरू की जाए, जबकि सरकार ने इसे 15 नवंबर से शुरू करने की घोषणा की है। यह पंद्रह दिन का अंतर, जो सामान्य जन के लिए महज़ एक कैलेंडर का टुकड़ा है, वही किसानों के लिए न सिर्फ़ आर्थिक चिंता, बल्कि उनकी मेहनत के सही समय पर उचित दाम मिलने की गारंटी है। धान की कटाई और मिसाई का कार्य समय पर पूरा होने के बाद किसान चाहता है कि उसकी उपज जल्द से जल्द खऱीदी जाए ताकि वह अपनी अगली फसल की तैयारी कर सके और अपने कर्ज का निपटान कर सके। विलंब से खऱीदी का मतलब है - किसानों को अपनी खऱीदी गई उपज को लंबे समय तक असुरक्षित ढंग से संग्रह करके रखना, जो मौसम की मार और चोरी-छिपे नुकसान की आशंका को बढ़ाता है।


इसके साथ ही, कांग्रेस ने धान के प्रति क्विंटल दर को 3100 रुपये से बढ़ाकर 3286 रुपये करने की भी मांग की है। यह मांग महज़ एक संख्या में बढ़ोतरी नहीं है, यह बढ़ती महंगाई, कृषि लागत (खाद, बीज, डीजल) में वृद्धि और किसानों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की अपेक्षा को दर्शाती है। जब राज्य सरकारें किसानों को उनकी लागत पर उचित लाभ देने की बात करती हैं, तब ऐसे मूल्य वृद्धि की मांग को सिरे से खारिज करना उचित नहीं। किसानों को उनकी उपज का सही और लाभकारी मूल्य मिलना उनका बुनियादी हक है।


राज्य में करीब 27 लाख 78 हजार पंजीकृत किसान अपनी मेहनत का फल सरकार को बेचते हैं। पिछले वर्ष (2024-25 में) सरकार ने 149 लाख मीट्रिक टन धान की खऱीदी की थी और किसानों को 46,000 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान किया था। यह आंकड़े छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में धान और किसानों के केंद्रीय महत्व को स्थापित करते हैं। जब इतने बड़े पैमाने पर किसानों की आजीविका दांव पर हो, तो खऱीदी की प्रक्रिया को लेकर किसी भी तरह की ढिलाई या राजनीतिक दांवपेंच उचित नहीं ठहराए जा सकते।


इस पूरे मामले में सरकार का पक्ष भी सामने आया है। राज्य के कृषि मंत्री रामविचार नेताम ने स्पष्ट किया है कि लगातार बारिश के बावजूद सरकार ने नवंबर से ही धान खऱीदी की प्रक्रिया शुरू करने का तय किया है। उन्होंने प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खऱीदी की अपनी कमिटमेंट को भी दोहराया है। यह एक सकारात्मक रुख है, लेकिन 'नवंबर' शब्द में 1 तारीख़ भी है और 15 तारीख़ भी। किसानों और विपक्ष की मांग स्पष्ट रूप से 1 नवंबर की है।


यह किसानों का मुद्दा कम और चुनावी वादों और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई ज़्यादा है। विपक्ष (कांग्रेस) उन वादों और मांगों को भुना रही है, जो किसानों के लिए सर्वाधिक संवेदनशील हैं, ताकि वह सरकार पर दबाव बना सके। वहीं, सरकार की मंशा अपनी प्रशासनिक सुविधा और खऱीदी के बुनियादी ढांचे को अंतिम रूप देने की हो सकती है। मगर इस रस्साकशी में सबसे ज़्यादा पीस रहा है अन्नदाता किसान।


धान खरीदी की तारीख़ और मूल्य की सियासत का अंजाम जो भी हो, पर यह तय है कि इस मुद्दे ने एक बार फिर राज्य की राजनीति में किसान केंद्रित नीतियों को बहस के केंद्र में ला दिया है। यह बहस तभी सार्थक होगी जब सरकार और विपक्ष दोनों ही, राजनीतिक स्कोरिंग से ऊपर उठकर, 'धान का कटोरा' कहलाने वाले इस राज्य के अन्नदाताओं को उनका सही हक और सम्मान दिलाने के लिए एकजुटता दिखाएँ। किसानों का हित ही राज्य का सच्चा विकास है।

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