15 नवंबर से शुरू हुई धान खरीदी केवल एक आर्थिक गतिविधि नहीं, बल्कि यह सरकार की प्रशासनिक इच्छाशक्ति और किसानों के प्रति प्रतिबद्धता की अग्निपरीक्षा है। छत्तीसगढ़ के 'धान के कटोरे' में एक बार फिर आर्थिक सरगर्मी तेज हो गई है। 15 नवंबर से राज्यव्यापी धान खरीदी महाभियान का शंखनाद हो चुका है। यह तारीख छत्तीसगढ़ के लिए महज एक कैलेंडर की तारीख नहीं है; यह लाखों किसान परिवारों के साल भर के परिश्रम, उनकी उम्मीदों और राज्य की संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पहिये को गति देने का निर्णायक क्षण है। इस वर्ष की खरीदी को केवल एक वार्षिक प्रशासनिक कवायद के तौर पर नहीं देखा जा सकता।
यह नई सरकार की नीतियों, उसके चुनावी वादों और उसकी जमीनी तैयारियों का पहला बड़ा 'लिटमस टेस्ट' है।यह सर्वविदित है कि छत्तीसगढ़ की राजनीति और अर्थनीति, दोनों का केंद्रबिंदु 'धान' ही रहा है। किसानों को दिया गया समर्थन मूल्य और बोनस, हमेशा से ही सत्ता के गलियारों तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता आया है। वर्तमान सरकार ने भी किसानों से बड़े वादे किए हैं, जिनमें ऊंचे समर्थन मूल्य और एकमुश्त भुगतान जैसी गारंटियां शामिल हैं। अब, जब किसान अपनी पकी हुई फसल लेकर उपार्जन केंद्रों तक पहुंच रहा है, तो उसकी निगाहें वादों को हकीकत में बदलते देखने पर टिकी हैं।
इसलिए, यह खरीदी अभियान केवल धान तौलने का नहीं, बल्कि सरकार के प्रति 'भरोसे' को तौलने का भी अभियान है। हालांकि, हर साल की तरह इस साल भी चुनौतियां कम नहीं हैं। सबसे पहली और बड़ी चुनौती है 'व्यवस्था' की। क्या प्रदेश के सभी उपार्जन केंद्र पूरी तरह तैयार हैं? किसानों के पंजीकरण से लेकर सॉफ्टवेयर की तकनीकी खामियों तक, हर छोटी-बड़ी बाधा को फौरन दूर करना होगा। दूसरी बड़ी चुनौती 'बारदानों' की उपलब्धता है। 'बारदाने' का संकट हर साल की स्थायी समस्या बन जाता है, जो पूरी प्रक्रिया को बाधित करता है। सरकार का यह दावा कि पर्याप्त बारदानों की व्यवस्था कर ली गई है, उसकी असली परीक्षा अब शुरू हुई है।
इसके अतिरिक्त, मौसम की अनिश्चितता, धान में नमी की मात्रा को लेकर होने वाले विवाद, और परिवहन की सुस्त चाल, ऐसी व्यावहारिक समस्याएं हैं जिनसे प्रशासनिक तंत्र को मुस्तैदी से निपटना होगा। सबसे महत्वपूर्ण है 'भुगतान प्रणाली'। किसान को अपनी उपज का पैसा मिलने में होने वाली देरी, उसे साहूकारों के चंगुल में फंसा सकती है और पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का चक्र रोक सकती है। सरकार द्वारा किया गया '24 घंटे' या '48 घंटे' में भुगतान का वादा, इस पूरी प्रक्रिया की सफलता की कुंजी साबित होगा। इस प्रक्रिया में 'पारदर्शिता' एक और अहम पहलू है। बिचौलियों की भूमिका को समाप्त करना और यह सुनिश्चित करना कि केवल वास्तविक किसान ही इस योजना का लाभ उठा पाएं, तंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है।
पिछले कुछ वर्षों में, पड़ोसी राज्यों से धान की अवैध आवक को रोकने में जो सफलता मिली है, उसे इस साल भी दोहराना होगा, ताकि छत्तीसगढ़ के किसानों का हक सुरक्षित रहे। अंततः, यह धान खरीदी सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है। यह केवल यह बताने के लिए नहीं है कि कितने लाख मीट्रिक टन धान की खरीदी हुई। इसका असली मकसद उस 'अन्नदाता' की समृद्धि है, जो साल भर मेहनत करके पूरे देश का पेट भरता है। किसान ने अपना काम कर दिया है; उसने पसीना बहाकर फसल तैयार कर दी है। अब बारी सरकार और उसके प्रशासनिक तंत्र की है। यह मौसम केवल धान की फसल काटने का नहीं, बल्कि किसानों के चेहरे पर संतोष और विश्वास की फसल उगाने का भी है। अगले कुछ महीने यह तय करेंगे कि 'धान का कटोरा' कहलाने वाला यह प्रदेश, अपने अन्नदाताओं की उम्मीदों पर कितना खरा उतरता है।
